Sunday, February 13, 2011

वैलेंटाइन विशेष

आज सुबह जब आँखें खुली, हर सुबह कि तरह सेलफोन से कुछ उम्मीद लगाये उसे निहारता रहा मगर बेबस मै उदास हो बिछावन छोड़ने मजबूर हो गया..! आज वैलेंटाइन दिवस है जिसका मेरे जिंदगी में कोई महत्व नही, क्यूंकि मैं किसी त्यौहार अथवा उपलक्ष्य के प्रति उदासीन हूँ, मेरा मानना है कि यदि इंसान अपने कार्य, कर्तव्य, रिश्ते, ईश्वर में आस्था एवं अन्य पहलुओं के प्रति इमानदार है तो फिर सरस्वती पूजा के दिन ही देवी माँ सरस्वती कि पूजा, १५ अगस्त के दिन ही क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि देने, बापू और गौतम के आदर्शों के पालन करने कि बात करने आदि कि कोई आवश्यकता नहीं; क्यूंकि ये भावनाएं किसी एक दिन कि उपज़ नहीं ये तो स्वतः और सतत है ! इश्वर के प्रति प्रेम, देश के लिए प्रेम अथवा व्यक्ति विशेष के लिए प्रेम यदि सत्यनिष्ठ है तो यह किसी दिन विशेष कि बैशाखी पे आश्रित नही..! मेरा चित्त मुझे इन अवसरों में शामिल हो कर प्रेम प्रकट करने कि इज़ाज़त नहीं देता क्यूंकि मै स्वयं यह मानता हूँ कि स्नेह और प्रेम को किसी दिन विशेष में ढालना उसके महत्व को कम करने और उन भावनाओं के तिरस्कार के सम है! मै सदैव एक सा रह पाता हूँ, मुझे ना ही किसी कि मृत्यू पे आंसू आती है आर ना ही किसी के विवाह अथवा जन्म पर ख़ुशी होती है; मै ऐसा क्यूँ हूँ मै स्वयं भी नही जानता मगर मै स्वयं से संतुष्ट से हूँ ! 
     आज थोडा दंभ है उसके लिए क्यूंकि उसके लिए शायद यह दिन विशेष मायने रखता है, मै तो हर रोज कि तरह सुबह उसकी आवाज़ कि आशा कर रहा था मगर मै जानता हूँ  कि किसी मजबूरी के वजह से ही सही उसका सुबह सुबह मुझसे बात ना हो पाना उसके लिए कितना कष्टप्रद हो रहा होगा! हे प्रिये !, मेरा स्नेह तुम्हारे लिए निरंतर है और तुम सदैव मुझमे शामिल हो! आज के दिन मै समस्त मित्रजनो को सिर्फ इतना ही शुभकामना दूंगा कि आपका प्रिय आपका हो, आप जिसे सत्यनिष्ठ हो प्रेम करते हैं उसके ह्रदय में भी आपके लिए वैसी ही भावना कि पवित्र नदी का उद्गम हो..!
   
      

Thursday, February 10, 2011

मेरा मैं

प्रस्तुत कविता मेरे द्वारा आज प्रातः काल ही लिखी गयी जो मेरे ह्रदय कि एक अनायास उपज़ है,मेरे प्रिय मित्र जन इसके शाब्दिक घेरे में न उलझ कर अपने चित्त व बौद्धिकता के घेरे में रख कर इन पंक्तियों को अर्थ प्रदान करें..! आपके सहयोग और अर्थबोध के बिना मेरी लेखनी अथवा मेरे विचार व्यर्थ है..!


कल परछाई से बात हुई थी मेरी,
उसने वादा किया वो छोड़ कर ना जाएगा,
मै नंगा रहूँ बाज़ार में खड़ा भी अगर,
वो मेरा अक्स हरगिज़ नहीं शर्मायेगा,
शाम देखा तो उसके भी हाथ लम्बे थे,
मै ठिगना ठगा ठहरा,
फिरता रहा अपना कद लेकर,
फिर शेखर भीड़ में कहाँ ठहरा,
दिए आवाज़, चीखा, चिल्लाया,
कहाँ कोई मुझे सुनने आया,
सड़क को छोड़ मायूसी बांधे,
जर्ज़र किस्मत को रख कांधे,
ठोंकरें खा खा के चौखट आया,
झुर्री से लदे पंजों से चंद पतवार लेकर,
कुछ यहाँ कुछ वहां छिटपुट संसार लेकर,
मै हतास कोसता रहा अपनी नियति को,
क्यों मै बौना हो गया अपने अक्स के सम,
कहा चला मेरे आशाओं का घर बार लेकर,
मोम के बीच लहराता वो आवारा लौ देखर,
जब मैंने नज़र फेरा,
एक परछाई मेरे आगे,
आवारा लौ कि तरह इतराती हुई नज़र आई,
मै सधा महसूस किया,
यकीन जब ये हुआ अभी भी कोई साथ है,
मगर लौ जैसे जैसे बौनी हुई,
मै भी वैसे ही ठिगना हुआ,
लौ कि आखिरी सांस तक मैं उदास था,
कि अक्स लम्बा और मैं छोटा,
मगर लौ के बुझते ही,
परछाई का साथ छूट गया,
उसका अस्तित्व नही मगर,
मै खुश हूँ कि मेरा मैं मेरे पास है..! 




हमे आप अपनी राय अवश्य लिखें क्यूंकि मेरे लिए आपके शाब्दिक  प्रोत्साहन अथवा आलोचना मेरे लिए विद्या और अद्भुत उर्जा का केंद्र  है,,!