Thursday, December 23, 2010

समाज, बच्चे और अभिभावक

मेरा जन्म भी इसी जातिगत ढांचा आधारित समाज में हुआ, लेकिन मेरा न तो कोई मजहब से वास्ता है ना ही किसी जाती से! इंसानियत और प्रेम मेरा धर्म है, कर्तव्य मेरी जाति! समाज का यह भौतिक ढांचा मुझे कलुषित करती है,ये भारतीय सभ्य समाज है जो नैतिकता का पाठ पढ़ा कर खुद हमे द्वेष करना सिखाती है, ये हमारा भारतीय सभ्य व सुसंस्कृत समाज है जो कर्तब्य का पाठ पढ़ा कर मानवता के पथ पर चलने से हमे रोकती  है और हमें अपने कर्तब्यों का वहां करने से वंचित करती है; ये हमारा भारतीय समाज है जो प्रेम के महत्व, आनंद, पीड़ा और मूल को नही जानती! हम अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा को कदाचित भली भांति समझने में सक्षम होते हैं मगर समाज के बनी बनाई अंधी रीति रिवाजों के ठेकेदारों की मानसिकता में परिवर्तन लाना सीधी खीर नहीं! लात मारता हूँ मै ऐसे समाज को जो हमारी भावनाओं, हमारे प्रेम और हमारे रिश्तों की कदर नही करता, लात मारता हूँ मै ऐसे समाज को जो अपनी अकड़ और जिद से कोरी परंपरा को संरक्षण देने नाम पर अपने इरादों के कफ़न में हमारी उम्मीदों की लाश बांधती रहती  है..!

मगर अफसोस की फिर भी हम ऐसी कैंसर युक्त समाज में बंधे रहने के लिए अपने अंतर्मन से ही मजबूर होते हैं! अफसोस की तमाम बाधाओं और जंजीरों को भंग करके भी हम लोग पुनः इसी ढाचे का अनुशरण करते हैं और इसी व्यवस्था को अपना आधार बनाते है..! अब वक़्त हो चूका है जागने का..!

और इसी क्रम में परिवार की संकल्पना बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है. अद्यतन समाज में दंपत्ति के बीच के संबंधों और उनके दिनचर्या पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. एक बच्चे के मनोविज्ञान  की परिभाषा उसके माता पिता के दैनिक जीवन, उनके बीच प्रेम एवं साहचर्य पर बहुत निर्भर करता है. अगर उनके आपसी सबंध में प्रेम नहीं हों, तो बच्चे की परवरिश पर इसका गहरा नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

कभी-कभी कहीं कुछ अच्छी बातें पढने को मिल जाती है. हिंदी के एक ब्लॉगर नरेश  नरोत्तम को पढ़ रहा था, उन्होंने किसी को कोट करते हुए  यह उद्दृत किया था कि :

"किसी घर में जब माँ बाप झगड़ते हैं.. वह ये क्यूँ भूल जाते हैं की उस परिवार के लोगों और खास तौर से उनके बच्चों पर क्या असर पड़ता होगा।  हम सब अपने को सही समझते हैं और दूसरे पर गुस्सा करना ही सही समझते हैं, जबकि समझदारी इसमे है की हम माहौल देख कर बातें करे। हम सबको मिलकर इस परिवार और उसमें रहने वाले लोगों का असली महत्त्व जीते जी पता चल जाना चाहिए और कोशिश सबको करनी चाहिए इसको बेहतर बनाने की।  
दो जिंदगीयां जुड़ने से ही एक परिवार सफल होता है, हम सबको मिलकर कोशिश करनी चाहिए की हम एक दूसरे का दिल ना दुखाएं और यदि ऐसा करे तो जल्द एक दूसरे से माफी मांग कर माफ करना सीखे। जिस दिन रिश्तों में अपना स्वाभिमान हावी नहीं होगा उस दिन प्यार बढ़ेगा और एक परिवार रहने लायक बनेगा। रिश्तों की एहमियत समझ कर अगर जीवन जिया जाए तो जीवन खुश नुमा हो जाता है।"

निश्चय ही यह बहुत बड़े विमर्श का विषय है. हमें यह सोचना चाहिए कि सीधे तौर पर बच्चे को दोषारोपित करना खुद की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने जैसा है. हमारी मनोदशा के लिए  हमारे अभिभावक का व्यवहार बेहद महत्वपूर्ण है. हम ये संकल्प लें कि एक अच्छे अभिभावक की भूमिका निभाएंगे और यही एक बेहतर  और सुखी समाज की संकल्पना को मूर्त रूप देगा.