Friday, July 15, 2016

मैं लौट आया हूँ...

जब शहर की रानाइयों में कुछ नहीं बचता, जब दुनियाँ की भीड़ में अपना 'मैं' खो जाता है, जब रौशनी में भी कोई राहें दिखाई नहीं देती, जब दिशाएँ पाँव के नीचे सिमट जाती है, तो इंसान बदहवास होकर जिंदगी की तलाश में ऊँचाइयों के बरअक्स जमीं पर लौटता ही है. मैं वही कोना ढूँढते  हुए फिर लौट आया हूँ...



Saturday, December 29, 2012

'दामिनी' को श्रद्धांजलि

तेरी खलिश दिलों से बुझे नहीं,
ये कशिश हमारा जाम है,

हर दामिनी अब जल उठे,
हर सख्श भू का चल उठे,
वो कारवां भी मचल उठे,
जो अब तलक गुमनाम है,

तेरी चिता की आग में जल उठे,
खुदा करे ये वतन मेरा,
तेरी आत्मा को स्वर्ग हो,
ये दुआ करे जेहन मेरा,

तू मरी नहीं, अमर है तू,
नई क्रांति की सहर है तू,
तुम धैर्य की मिशाल हो,
नई क्रांति की डगर है तू,

ह्रदय में तेरी खला है, 
मातमो का यूँ सिला है,
रो रही है कोटि आँखें,
रो रहा आवाम है,

तेरी खलिश दिलों से बुझे नहीं,ये कशिश हमारा जाम है।


Sunday, March 20, 2011

होली को लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण

होली का त्योहार न केवल मौज-मस्ती, सामुदायिक सद्भाव और मेल-मिलाप का त्योहार है बल्कि इस त्योहार को मनाने के पीछे कई वैज्ञानिक कारण भी हैं जो न केवल पर्यावरण को बल्कि मानवीय सेहत के लिए भी गुणकारी हैं।
   वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली का त्योहार मनाने की शुरूआत की। लेकिन होली के त्योहार की मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक कारणों से अंजान रहते हैं।
  होली का त्योहार साल में ऐसे समय पर आता है जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं। ठंडे मौसम के गर्म रूख अख्तियार करने के कारण शरीर का कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है। शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में न केवल जोर से गाते हैं बल्कि बोलते भी थोड़ा जोर से हैं।
  इस मौसम में बजाया जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है। ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है।
   NDयोगाश्रम के डॉ. प्रधान ने बताया कि होली पर शरीर पर ढाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं।
  होली का त्योहार मनाने का एक और वैज्ञानिक कारण है। हालाँकि यह होलिका दहन की परंपरा से जुड़ा है।
   शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान बढ़ता है। परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है।
   दक्षिण भारत में जिस प्रकार होली मनाई जाती है, उससे यह अच्छे स्वस्थ को प्रोत्साहित करती है। होलिका दहन के बाद इस क्षेत्र में लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन तथा हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं।
  कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि रंगों से खेलने से स्वास्थ्य पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि रंग हमारे शरीर तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरीके से असर डालते हैं। पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है।
   होली के मौके पर लोग अपने घरों की भी साफ-सफाई करते हैं जिससे धूल गर्द, मच्छरों और अन्य कीटाणुओं का सफाया हो जाता है। एक साफ-सुथरा घर आमतौर पर उसमें रहने वालों को सुखद अहसास देने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा भी प्रवाहित करता है!


Friday, March 18, 2011

अंधी सोच की उपज भ्रूण हत्या

 आए दिनों कन्या के जन्म को ले कर परिवार, समाज, देश और कल का जो विकृत दृष्टिकोण उद्धृत हो रहा है उस पर यदि हम सामाजिक सोच से तटस्थ होकर विचार करें तो निश्चय ही हमे इस बात का अभाष हो सकेगा की भले ही हम आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर, विकासोन्मुख और बौध्हिकता की होड़ में अग्रगण्य महसूस करते हों मगर स्त्री जाती के प्रति हमारा जो विविध मानसिक विकृतियाँ हैं वह हमे बुद्धिहीन एवं जड़त्व के कत्घदे में लाकर खड़ा करता है! इससे न सिर्फ हम अपनी संस्कृति और मानव धर्म को कलंकित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं अपितु इससे हमारी अनैतिक सांस्कृतिक मूल भी परिलक्षित होती है!
  संभव है की आप मेरी सोंच एवं परिकल्पना पर ही संशय करें, पर इतना तय है कि जब देश के बुद्धिजीवी किसी समस्या को लेकर चीखते हैं तब उसे हम समस्या नहीं बल्कि समस्याओं या सामाजिक विकारों का परिणाम मानते हैं। टीवी और समाचार पत्रों के समाचारों में लड़कियों के विरुद्ध अपराधों की बाढ़ आ गयी है और कुछ बुद्धिमान लोग इसे समस्या मानकर इसे रोकने के लिये सरकार की नाकामी मानकर हो हल्ला मचाते हैं। उन लोगों से हमारी बहस की गुंजायश यूं भी कम जाती हैं क्योंकि हम तो इसे कन्या भ्रुण हत्या के फैशन के चलते समाज में लिंग असंतुलन की समस्या से उपजा परिणाम मानते है। लड़की की एकतरफ प्यार में हत्या हो या बलात्कार कर उसे तबाह करने की घटना, समाज में लड़कियों की खतरनाक होती जा रही स्थिति को दर्शाती हैं। इस देश में गर्भ में कन्या की हत्या करने का फैशन करीब बीस साल पुराना हो गया है। यह सिलसिला तब प्रारंभ हुआ जब देश के गर्भ में भ्रुण की पहचान कर सकने वाली ‘अल्ट्रासाउंड मशीन’ का चिकित्सकीय उपयोग प्रारंभ हुआ। दरअसल पश्चिम के वैज्ञानिकों ने इसका अविष्कार गर्भ में पल रहे बच्चे तथा अन्य लोगों पेट के दोषों की पहचान कर उसका इलाज करने की नीयत से किया था। भारत के भी निजी चिकित्सकालयों में भी यही उद्देश्य कहते हुए इस मशीन की स्थापना की गयी। यह बुरा नहीं था पर जिस तरह इसका दुरुपयोग गर्भ में बच्चे का लिंग परीक्षण कराकर कन्या भ्रुण हत्या का फैशन प्रारंभ हुआ उसने समाज की स्थिति को बहुत बिगाड़ दिया। फैशन शब्द से शायद कुछ लोगों को आपत्ति हो पर सच यह है कि हम अपने धर्म और संस्कृति में माता, पिता तथा संतानों के मधुर रिश्तों की बात भले ही करें पर कहीं न कहीं भौतिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की वजह से उनमें जो कृत्रिमता है उसे भी देखा जाना चाहिए। अनेक ज्ञानी लोग तो अपने समाज के बारे में साफ कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को हथियार की तरह उपयोग करना चाहते हैं जैसे कि स्वयं अपने माता पिता के हाथों हुए। मतलब दैहिक रिश्तों में धर्म या संस्कृति का तत्व देखना अपने आपको धोखा देना है। जिन लोगों को इसमें आपत्ति हो वह पहले कन्या भ्रुण हत्या के लिये तर्कसंगत विचार प्रस्तुत करते हुए उस उचित ठहरायें वरना यह स्वीकार करें कि कहीं न कहीं अपने समाज के लेकर हम आत्ममुग्धता की स्थिति में जी रहे हैं।
जब हम अद्यतन अतीत के पन्नो पर अपनी सरसरी निगाह डालते है तो इस बात का भी प्रमाण मिलता है की जब कन्या भ्रुण हत्या का फैशन की शुरुआत हुई तब समाज के विशेषज्ञों ने चेताया था कि अंततः यह नारी के प्रति अपराध बढ़ाने वाला साबित होगा क्योंकि समाज में लड़कियों की संख्या कम हो जायेगी तो उनके दावेदार लड़कों की संख्या अधिक होगी नतीजे में न केवल लड़कियों के प्रति बल्कि लड़कों में आपसी विवाद में हिंसा होगी। इस चेतावनी की अनदेखी की गयी। दरअसल हमारे देश में व्याप्त दहेज प्रथा की वजह से लोग परेशान रहे हैं। कुछ आम लोग तो बड़े आशावादी ढंग से कह रहे थे कि ‘लड़कियों की संख्या कम होगी तो दहेज प्रथा स्वतः समाप्त हो जायेगी। कुछ लोगों के यहां पहले लड़की हुई तो वह यह सोचकर बेफिक्र हो गये कि कोई बात नहीं तब तक कन्या भ्रुण हत्या की वजह से दहेज प्रथा कम हो जायेगी। अलबत्ता वही दूसरे गर्भ में परीक्षण के दौरान लड़की होने का पता चलता तो उसे नष्ट करा देते थे। कथित सभ्य तथा मध्यम वर्गीय समाज में कितनी कन्या भ्रुण हत्यायें हुईं इसकी कोई जानकारी नहीं दे सकता। सब दंपतियों के बारे में तो यह बात नहीं कहा जाना चाहिए पर जिनको पहली संतान के रूप में लड़की है और दूसरी के रूप में लड़का और दोनों के जन्म के बीच अंतर अधिक है तो समझ लीजिये कि कहीं न कहंी कन्या भ्रुण हत्या हुई है-ऐसा एक सामाजिक विशेषज्ञ ने अपने लेख में लिखा था। अब तो कई लड़किया जवान भी हो गयी होंगी जो पहली संतान के रूप में उस दौर में जन्मी थी जब कन्या भ्रुण हत्या के चलते दहेज प्रथा कम होने की आशा की जा रही थी। मतलब यह कि यह पच्चीस से तीस साल पूर्व का सिलसिला है और दहेज प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। हम दहेज प्रथा समाप्ति की आशा भी कुछ इस तरह कर रहे थे कि शादी का संस्कार बाज़ार के नियम पर आधारित है यानि धर्म और संस्कार की बात एक दिखावे के लिये करते हैं।
इसका कारण यह है कि देश में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। मध्यम वर्ग के लोग अब निम्न मध्यम वर्ग में और निम्न मध्यम वर्ग के गरीब वर्ग में आ गये हैं पर सच कोई स्वीकार नहीं कर रहा। लड़कियों के लिये वर ढूंढना इसलिये भी कठिन है क्योंकि रोजगार के आकर्षक स्तर में कमी आई है। अपनी बेटी के लिये आकर्षक जीवन की तलाश करते पिता को अब भी भारी दहेज प्रथा में कोई राहत नहीं है। उल्टे शराब, अश्लील नृत्य तथा विवाहों में बिना मतलब के व्यय ने लड़कियों की शादी कराना एक मुसीबत बना दिया है। इसलिये योग्य वर और वधु का मेल कराना मुश्किल हो रहा है।
अगर हम असल ज़िन्दगी में इसके परिणाम और प्रभाव की विवेचना करें तो लडको की दयनीयता का भी आभास होता है साथ ही नारी के प्रति बढ़ते अत्याचारों का भी कारन हास्यास्पद स्टार पर ज्ञात होता है! फिर पहले किसी क्षेत्र में लड़कियां अधिक होती थी तो दीवाने लड़के एक नहीं  तो दूसरी को देखकर दिल बहला लेते थे। दूसरी नहीं तो तीसरी भी चल जाती। अब स्थिति यह है कि एक लड़की है तो दूसरी दिखती नहीं, सो मनचले और दीवाने लड़कों की नज़र उस पर लगी रहती है और कभी न कभी सब्र का बांध टूट जाता है और पुरुषत्व का अहंकार उनको हिंसक बना देता है। लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराध कानून व्यवस्था या सरकार की नाकामी मानना एक सुविधाजनक स्थिति है और समाज के अपराध को दरकिनार करना एक गंभीर बहस से बचने का सरल उपाय भी है। 
यहाँ अनेक समस्या और व्यवधान खड़े होते हैं, स्त्री स्वयं शक्ति की अनुभूति कर हमारे आपके ज्ञान एवं उनके सुरक्षा के प्रति अनुरक्ति को तुच्छ करार देती है! आप हम जब स्त्री को अपने परिवार के पुरुष सदस्य से संरक्षित होकर राह पर चलने की बात करते हैं तो नारीवादी बुद्धिमान लोग उखड़ जाते हैं। उनको लगता है कि अकेली घूमना नारी का जन्मसिद्ध अधिकार है और राज्य व्यवस्था उसको हर कदम पर सुरक्षा दे तो यह एक काल्पनिक स्वर्ग की स्थिति है। यह नारीवादी बुद्धिमान नारियों पर हमले होने पर रो सकते हैं पर समाज का सच वह नहीं देखना चाहते। हकीकत यह है कि समाज अब नारियों के मामले में मध्ययुगीन स्थिति में पहुंच रहा है। हम भी चुप नहीं  बैठ सकते क्योंकि जब नारियों के प्रति अपराध होता है तो मन द्रवित हो उठता है और लगता है कि समाज अपना अस्तित्व खोने को आतुर है। मगर जरुरत है हमे अपने कर्तव्य पर अटल रहने की, जरुरत है स्त्री जाती के प्रति सम्मान के भावना को सहर्स स्वीकार करने की और जरुरत है उन्हें सुरक्षित रूप से इस पृथ्वी लोक का हिस्सा बनने देने की वरना संभव है की हमारी दूरदर्शिता की कमी के कारण यह अनोखा ग्रह भी जनशून्य  हो जाएगा..! 

Sunday, February 13, 2011

वैलेंटाइन विशेष

आज सुबह जब आँखें खुली, हर सुबह कि तरह सेलफोन से कुछ उम्मीद लगाये उसे निहारता रहा मगर बेबस मै उदास हो बिछावन छोड़ने मजबूर हो गया..! आज वैलेंटाइन दिवस है जिसका मेरे जिंदगी में कोई महत्व नही, क्यूंकि मैं किसी त्यौहार अथवा उपलक्ष्य के प्रति उदासीन हूँ, मेरा मानना है कि यदि इंसान अपने कार्य, कर्तव्य, रिश्ते, ईश्वर में आस्था एवं अन्य पहलुओं के प्रति इमानदार है तो फिर सरस्वती पूजा के दिन ही देवी माँ सरस्वती कि पूजा, १५ अगस्त के दिन ही क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि देने, बापू और गौतम के आदर्शों के पालन करने कि बात करने आदि कि कोई आवश्यकता नहीं; क्यूंकि ये भावनाएं किसी एक दिन कि उपज़ नहीं ये तो स्वतः और सतत है ! इश्वर के प्रति प्रेम, देश के लिए प्रेम अथवा व्यक्ति विशेष के लिए प्रेम यदि सत्यनिष्ठ है तो यह किसी दिन विशेष कि बैशाखी पे आश्रित नही..! मेरा चित्त मुझे इन अवसरों में शामिल हो कर प्रेम प्रकट करने कि इज़ाज़त नहीं देता क्यूंकि मै स्वयं यह मानता हूँ कि स्नेह और प्रेम को किसी दिन विशेष में ढालना उसके महत्व को कम करने और उन भावनाओं के तिरस्कार के सम है! मै सदैव एक सा रह पाता हूँ, मुझे ना ही किसी कि मृत्यू पे आंसू आती है आर ना ही किसी के विवाह अथवा जन्म पर ख़ुशी होती है; मै ऐसा क्यूँ हूँ मै स्वयं भी नही जानता मगर मै स्वयं से संतुष्ट से हूँ ! 
     आज थोडा दंभ है उसके लिए क्यूंकि उसके लिए शायद यह दिन विशेष मायने रखता है, मै तो हर रोज कि तरह सुबह उसकी आवाज़ कि आशा कर रहा था मगर मै जानता हूँ  कि किसी मजबूरी के वजह से ही सही उसका सुबह सुबह मुझसे बात ना हो पाना उसके लिए कितना कष्टप्रद हो रहा होगा! हे प्रिये !, मेरा स्नेह तुम्हारे लिए निरंतर है और तुम सदैव मुझमे शामिल हो! आज के दिन मै समस्त मित्रजनो को सिर्फ इतना ही शुभकामना दूंगा कि आपका प्रिय आपका हो, आप जिसे सत्यनिष्ठ हो प्रेम करते हैं उसके ह्रदय में भी आपके लिए वैसी ही भावना कि पवित्र नदी का उद्गम हो..!
   
      

Thursday, February 10, 2011

मेरा मैं

प्रस्तुत कविता मेरे द्वारा आज प्रातः काल ही लिखी गयी जो मेरे ह्रदय कि एक अनायास उपज़ है,मेरे प्रिय मित्र जन इसके शाब्दिक घेरे में न उलझ कर अपने चित्त व बौद्धिकता के घेरे में रख कर इन पंक्तियों को अर्थ प्रदान करें..! आपके सहयोग और अर्थबोध के बिना मेरी लेखनी अथवा मेरे विचार व्यर्थ है..!


कल परछाई से बात हुई थी मेरी,
उसने वादा किया वो छोड़ कर ना जाएगा,
मै नंगा रहूँ बाज़ार में खड़ा भी अगर,
वो मेरा अक्स हरगिज़ नहीं शर्मायेगा,
शाम देखा तो उसके भी हाथ लम्बे थे,
मै ठिगना ठगा ठहरा,
फिरता रहा अपना कद लेकर,
फिर शेखर भीड़ में कहाँ ठहरा,
दिए आवाज़, चीखा, चिल्लाया,
कहाँ कोई मुझे सुनने आया,
सड़क को छोड़ मायूसी बांधे,
जर्ज़र किस्मत को रख कांधे,
ठोंकरें खा खा के चौखट आया,
झुर्री से लदे पंजों से चंद पतवार लेकर,
कुछ यहाँ कुछ वहां छिटपुट संसार लेकर,
मै हतास कोसता रहा अपनी नियति को,
क्यों मै बौना हो गया अपने अक्स के सम,
कहा चला मेरे आशाओं का घर बार लेकर,
मोम के बीच लहराता वो आवारा लौ देखर,
जब मैंने नज़र फेरा,
एक परछाई मेरे आगे,
आवारा लौ कि तरह इतराती हुई नज़र आई,
मै सधा महसूस किया,
यकीन जब ये हुआ अभी भी कोई साथ है,
मगर लौ जैसे जैसे बौनी हुई,
मै भी वैसे ही ठिगना हुआ,
लौ कि आखिरी सांस तक मैं उदास था,
कि अक्स लम्बा और मैं छोटा,
मगर लौ के बुझते ही,
परछाई का साथ छूट गया,
उसका अस्तित्व नही मगर,
मै खुश हूँ कि मेरा मैं मेरे पास है..! 




हमे आप अपनी राय अवश्य लिखें क्यूंकि मेरे लिए आपके शाब्दिक  प्रोत्साहन अथवा आलोचना मेरे लिए विद्या और अद्भुत उर्जा का केंद्र  है,,!

Thursday, December 23, 2010

समाज, बच्चे और अभिभावक

मेरा जन्म भी इसी जातिगत ढांचा आधारित समाज में हुआ, लेकिन मेरा न तो कोई मजहब से वास्ता है ना ही किसी जाती से! इंसानियत और प्रेम मेरा धर्म है, कर्तव्य मेरी जाति! समाज का यह भौतिक ढांचा मुझे कलुषित करती है,ये भारतीय सभ्य समाज है जो नैतिकता का पाठ पढ़ा कर खुद हमे द्वेष करना सिखाती है, ये हमारा भारतीय सभ्य व सुसंस्कृत समाज है जो कर्तब्य का पाठ पढ़ा कर मानवता के पथ पर चलने से हमे रोकती  है और हमें अपने कर्तब्यों का वहां करने से वंचित करती है; ये हमारा भारतीय समाज है जो प्रेम के महत्व, आनंद, पीड़ा और मूल को नही जानती! हम अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा को कदाचित भली भांति समझने में सक्षम होते हैं मगर समाज के बनी बनाई अंधी रीति रिवाजों के ठेकेदारों की मानसिकता में परिवर्तन लाना सीधी खीर नहीं! लात मारता हूँ मै ऐसे समाज को जो हमारी भावनाओं, हमारे प्रेम और हमारे रिश्तों की कदर नही करता, लात मारता हूँ मै ऐसे समाज को जो अपनी अकड़ और जिद से कोरी परंपरा को संरक्षण देने नाम पर अपने इरादों के कफ़न में हमारी उम्मीदों की लाश बांधती रहती  है..!

मगर अफसोस की फिर भी हम ऐसी कैंसर युक्त समाज में बंधे रहने के लिए अपने अंतर्मन से ही मजबूर होते हैं! अफसोस की तमाम बाधाओं और जंजीरों को भंग करके भी हम लोग पुनः इसी ढाचे का अनुशरण करते हैं और इसी व्यवस्था को अपना आधार बनाते है..! अब वक़्त हो चूका है जागने का..!

और इसी क्रम में परिवार की संकल्पना बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है. अद्यतन समाज में दंपत्ति के बीच के संबंधों और उनके दिनचर्या पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. एक बच्चे के मनोविज्ञान  की परिभाषा उसके माता पिता के दैनिक जीवन, उनके बीच प्रेम एवं साहचर्य पर बहुत निर्भर करता है. अगर उनके आपसी सबंध में प्रेम नहीं हों, तो बच्चे की परवरिश पर इसका गहरा नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

कभी-कभी कहीं कुछ अच्छी बातें पढने को मिल जाती है. हिंदी के एक ब्लॉगर नरेश  नरोत्तम को पढ़ रहा था, उन्होंने किसी को कोट करते हुए  यह उद्दृत किया था कि :

"किसी घर में जब माँ बाप झगड़ते हैं.. वह ये क्यूँ भूल जाते हैं की उस परिवार के लोगों और खास तौर से उनके बच्चों पर क्या असर पड़ता होगा।  हम सब अपने को सही समझते हैं और दूसरे पर गुस्सा करना ही सही समझते हैं, जबकि समझदारी इसमे है की हम माहौल देख कर बातें करे। हम सबको मिलकर इस परिवार और उसमें रहने वाले लोगों का असली महत्त्व जीते जी पता चल जाना चाहिए और कोशिश सबको करनी चाहिए इसको बेहतर बनाने की।  
दो जिंदगीयां जुड़ने से ही एक परिवार सफल होता है, हम सबको मिलकर कोशिश करनी चाहिए की हम एक दूसरे का दिल ना दुखाएं और यदि ऐसा करे तो जल्द एक दूसरे से माफी मांग कर माफ करना सीखे। जिस दिन रिश्तों में अपना स्वाभिमान हावी नहीं होगा उस दिन प्यार बढ़ेगा और एक परिवार रहने लायक बनेगा। रिश्तों की एहमियत समझ कर अगर जीवन जिया जाए तो जीवन खुश नुमा हो जाता है।"

निश्चय ही यह बहुत बड़े विमर्श का विषय है. हमें यह सोचना चाहिए कि सीधे तौर पर बच्चे को दोषारोपित करना खुद की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने जैसा है. हमारी मनोदशा के लिए  हमारे अभिभावक का व्यवहार बेहद महत्वपूर्ण है. हम ये संकल्प लें कि एक अच्छे अभिभावक की भूमिका निभाएंगे और यही एक बेहतर  और सुखी समाज की संकल्पना को मूर्त रूप देगा.